बुधवार, 1 अप्रैल 2015

बीबीसी के नाम खुला पत्र



मान्यवर,

बीबीसीहिन्दी की मेरी पहली याद लगभग ४५-४६ वर्ष पुरानी है. बचपन से बड़े होने तक रेडियो पर बीबीसी सुनाना दिनचर्या का हिस्सा सदैव रहा. फिर टीवी का युग शुरू हुआ और अनउपलब्धता के चलते बीबीसी का साथ छूट गया. उसके बाद केबल टीवी के माध्यम से बीबीसी पुनः जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया.

कल रात मेरी फ़ेसबुक टाईमलाइन पर बीबीसी का प्रायोजित पोस्ट देख कर उँगलियों ने स्वयं ही उसे क्लिक कर दिया. (गुजरात विधानसभा में 'गुजरात राज्य कंट्रोल ऑफ़ टेररिज्म एंड ऑर्गेनाइज़्ड क्राइम' (गुजकोक) बिल पारित हो गया. पर कांग्रेस ने इसका विरोध किया. आख़िर क्यों?  http://bbc.in/1G35ktj)


गुजरात विधानसभा में 'गुजरात राज्य कंट्रोल ऑफ़ टेररिज्म एंड ऑर्गेनाइज़्ड क्राइम' (गुजकोक) बिल पारित हो गया. पर कांग्रेस ने इसका विरोध किया. आख़िर क्यों? http://bbc.in/1G35ktj
Posted by BBC Hindi on Tuesday, March 31, 2015

पोस्ट कमेंट्स में लोगों की बेलगाम अभद्र भाषा और गंदी गालियों का उन्मुक्त प्रयोग पढ़कर मन इतना खिन्न हुआ कि रात भर सो नहीं पाया और सुबह उठते ही आपको यह पत्र लिखने बैठ गया. पत्रकारिता और संचार माध्यम की ऐसी लाचार अक्रमणय हीन दशा देख कर ह्रदय कराह उठा

ये दो बातों को दर्शाता है - एक तो लोगों के गिरती हुई मानसिकता के स्तर की ओर और दूसरे बीबीसी जैसे प्रतिष्ठित माध्यम के दुरुपयोग ओर. यह ये दर्शाता है कि आपके (बीबीसी के) फ़ेसबुक के पेज एडमिनिस्टरेटर का, ना ही कुछ पत्रकारिता के मूल्यों से कुछ लेना देना है और ना ही बीबीसी के नैतिक और सामाजिक मूल्यों से. शायद उनका काम सिर्फ़ बीबीसी की वेबसाईट की कुछ लिंक फ़ेसबुक कापी पेस्ट करना मात्र है.

लोगों के बारे में तो मैं कुछ नहीं कह सकता परन्तु यह जानता हूँ कि जब बीबीसी जैसे माध्यम पर अभद्र भाषा के प्रयोग पर लगाम नहीं लगायी जाती है तब ऐसी भाषा का प्रयोग करने वालों को अनायास ही प्रोत्साहन मिलता और वे उसका उपयोग बेशर्मी से करते

मुझे ख़ुशी होगी कि कम से कम बीबीसी हिन्दी जैसे माध्यम पर कम से कम लोगों को शालीन भाषा पढ़ने मिले और अभद्र भाषा के प्रयोग को इस तरह बढ़ावा ना दिया जाये.

आशा है मेरे पत्र को आप संज्ञान में लेते हुये अभद्र कमेंट्स को अपने फ़ेसबुक पेज से तुरंत हटायेगें.

धन्यवाद,
संजीव 

सोमवार, 28 जनवरी 2013

स्वयं के लिये चिंतन का समय - आत्म मंथन

आज अचानक एक अन्तराल के बाद लगा, कि शायद एक बार फिर आत्म चिंतन और मंथन का समय आ गया है। और सोचा कि भले ही मुझे अपने चलते हुए जीवन को कुछ विराम देना पड़े, पर कुछ समय ढहर कर यह कार्य करना अत्यंत आवश्यक है। जरुरी इसलिए, कि अभी एक लम्बा रास्ता सामने चलने के लिए बाकी है, सो यह तैयारी भी जरुरी है।

ज्यादातर, हम सभी अपने जीवन की आपा-धापी में इतने व्यस्त रहते हैं कि कभी कुछ सोचने का समय ही नहीं मिलता. और जो थोड़ा  बहुत समय मिलता भी है, वह पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने या फिर सैर सपाटे और मौज मस्ती में ही निकल जाता है. हम में से अधिकतर लोग कभी रुकते ही नहीं हैं, बस अपनी ही लौं में भागते चले जाते हैं, जैसे किसी मृग मरीचिका का पीछा कर रहे हों. हम जितना उसके पास जाने या उसे पाने की कोशिश करते है, वह उतनी ही दूर हमसे होती जाती है. या वह अगर मृग मरीचिका न भी हो तो हम में से को ज्यादातर को मालूम ही नहीं होता कि हम अपने जीवनकाल क्या पाना या हासिल करना चाहते है. परन्तु बस भागते रहते  है. और जब हम कभी पीछे मुड़कर देखते है तो मालूम चलता है, कि ज्यादा कुछ तो हासिल ही नहीं कर पाये और जो किया भी था वह अपना न रहा. अफ़सोस.

अब आप कहेंगे, कि अगर प्रयास ही नहीं करेंगे तब तक तो कुछ भी हासिल न होगा और इसलिए लगातार प्रयासरत रहना जरुरी है और इसलिए जीवन की दौड़ लगातार भागते रहना भी सही है. बस यहीं आ कर मेरी सोच थोड़ी भिन्न हो जाती है.

असल में हम कभी भी वास्तविक आत्म मंथन या स्वयं से साक्षात्कार नहीं करते. और करते भी हैं तो उसमें अमूमन ईमानदारी की कमी होती है और इसलिए हमारा, अपनी क्षमताओं का आकलन बार-बार गलत सिद्ध होता है. हम अपनी असफलताओं का घड़ा हर बार किसी न किसी के सर फोड़ते रहते हैं. पर ऐसा नहीं है कि हमने मंथन के महत्व के बारे में सुना ही नहीं है. चलिए, मैं आपको थोड़ा याद दिला देता हूँ - समुद्र मंथन, शायद जबसे ज्यादा चर्चित है. यह मंथन देवताओं और राक्षसों के बीच हुआ था, जिसमें समुद्र का मंथन करने पर 14 रत्न निकले थे. और लक्ष्मी और अमृत भी उन रत्नों में से एक थे. ये दो रत्न, ऐसी दो चीजें है जिनको पाने की ललक में हम पूरा जीवन भागते हुए निकल देते है.

मैंने अपने आपको कभी नास्तिक की श्रेणी में नहीं रखा, पर कभी धर्मांध भी नहीं बन पाया और मैंने धर्म की परिभाषा को अपने हिसाब से पढ़ा. मैं इस समुद्र मंथन की कथा को दूसरी तरह पढता हूँ. मेरे लिए यह देवताओं (याने दैवीय शाक्तियों या फिर पॉजिटिव एनर्जी ) और राक्षसों (पाशविक शाक्तियों या फिर नेगेटिव एनेर्जी) का मंथन था. और मैंने इस कथा से यह सीखा कि हमें अपने जीवनकाल में हर थोड़े समय में आत्म मंथन करते रहना चाहिए, जिससे कि हम अपनी दैवीय और राक्षसी शक्तियों या प्रवार्तियों या फिर क्षमताओं को पहचाने और उनका, अपने जीवन विकास के लिए सही दोहन कर सकें. अपनी शक्तियों का, अपने विकास के लिए चुनाव हमे करना पड़ेगा. और बिना सही चुनाव के जीवन लक्ष्य को पाना कठिन है. एक ओर अगर हमारी पॉजिटिव शक्तियां हमें एक बेहतर इन्सान बनती हैं, तो हमारी पाशविक शक्तियाँ शायद हमें गलत तरीकों और रास्तों की ओर ले जाती है. और इसलिए अपने  छुपी इन शक्तियों या ताकतों की सही पहचान करना मेरे लिए बहुत  है.

और जब यह सब मेरे असुप्त मन में चल रहा था, तो सोचा कि अपनी यह सोच भी आप सबके साथ भी बाँट लूँ, न जाने कब किसके काम आ जाये और मेरे जैसे एक और पथिक को अपनी राह मिल जाये।

मंगलवार, 26 जून 2012

कहीं कुछ कम है

शहरयार साहिब के गुजर जाने पर मैंने अंग्रेजी में एक ब्लॉग लिखा था. उसे ही अपने हिंदी पाठकों के लिए पोस्ट कर रहा हूँ.

Tribute to Shaharyar

उर्दू के मशहूर शायर और विद्द्वान प्रोफेसर अखलाक मोहम्मद खान "शहरयार" का 13 फ़रवरी 2012 को अपने घर अलीगढ में निधन हो गया. एक श्रधांजलि:


जिन्दगी जैसी तमन्ना थी नहीं कुछ कम है.
हर घडी होता है एहसास कहीं कुछ कम है.

घर की तामीर तसवुर ही में हो सकती है,
अपने नक्से के मुताबिक ये ज़मीं कुछ कम है.

बेचारे लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी,
दिल में उम्मीद तो काफी है यकीन कुछ कम है.

अब जिधर देखिये लगता है की इस दुनिया में,
कहीं कुछ चीज ज्यादा है कहीं कुछ कम है.

आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब,
ये अलग बात की पहली सी नहीं कुछ कम है.

शहरयार

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

हॉबी और व्यस्तता

आज की व्यस्तता भरी और भागती हुई जिंदगी में, जब किसी के भी पास अपने और अपनों के लिए समय नहीं है, ऐसे में हम में से न जाने कितने हैं जो अपने मन में, न जाने कितने बुने-अनबुने ख्वाब लिए जीते है. इस एक कदम आगे रहने की दौड़ में, न जाने हम कब अपने दिल को प्यारी बातों से अनजाने में ही टहलते हुए इतनी दूर निकल जाते हैं कि अक्सर अपने ही दिल के करीब की बात सबसे दूर लगने लगती है. और इन चीजों के लिए दिल में उठने वाली टीस को हम इतनी बार दबदबा कर अपने ही अन्दर दफ़न कर  देते है कि जब इनके साथ जीने कि इक्छा होती भी है तो इनको दुबारा जिलाना असंभव प्रतीत होता है.


बचपन में मैने काफी समय तक पेंटिंग करना सीखा था और ठीक-ठाक ही ब्रश चला लेता था, फिर पिताजी कि बदली के चलते जगह बदली और हम शहर से गाँव पहुँच गए और मेरा पेंटिंग करना इस बदली के दरमियान कहीं खो गया और ऐसा खोया की आज तक नहीं मिला. पर गाँव में अकेलेपन से जूझने के लिए मैने पेन फ्रेंड्स में एक नयी हाबी दूंड ली और फिर अपने करीबियों से रोजाना ही पत्र व्यव्हार का सिलसिला चल निकला. पोस्टमेन की हाक का रोज इंतजार करना और आये हुए पत्रों का जवाब रोजाना लाल डब्बे में पोस्ट करने जाना, जीवन का हिस्सा बन गया और ये सिलसिला लगभग बिना किसी बाधा के करीब तीन साल तक चला.


१९८२ में पापा का ट्रान्सफर भोपाल हो गया. और शुरू के कुछ महीने किराये के एक कमरे-किचिन वाले मकान में रहने के बाद उन्हें सरकारी क्वाटर मिला. ये सरकारी मकान एक नयी बनी हुई कालोनी में था और भोपाल शहर के बीचों-बीच होते हुए भी इस क्वाटर में बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं थी और साथ ही इस कालोनी की सड़के, बारिश के कीचड़ से भरी हुई थी. परन्तु कुछ आठ-दस परिवार, जो शायद मकान के किराये और जगह की तंगी से परेशान थे, बिना किसी बात की परवाह किये इन मकानों में अपने परिवारों सहित शिफ्ट हो गए. 

ये बड़ा ही मजेदार समय और अनुभव था - पड़ोस की एक किलोमीटर दूर स्थित कालोनी से दिन में दो बार साईकिल पर बाल्टियाँ लटका कर, पानी डोना और शाम होते ही लेम्प और लालटेन की चिमनी, राख़ से साफ़ करने बैठ जाना, जीवन का हिस्सा बन गया. खाली समय काटने के लिए बेटरी से चलने वाले रेडियो, अपने-अपने गेट पर खड़े होकर गप्पे मारने या कालोनी के पास की मुख्य सड़क पर टहलने के आसरे के अलावा किसी और बात का आसरा ना था. ऐसे में पापा के कहने पर खुरपी से जंगली घास छीलते-छीलते मुझे भी बागवानी का शौक हो गया. 
 
घर की सीढियों के ढलान के साथ के केक्टस की रॉकरी बनाई जिसमें मैंने करीब चालीस तरह के केक्टस उगाये हुए थे. करीब चार साल तक, उस क्यारी को सजाने के लिए रस्ते में पड़े किसी भी खुबसूरत पत्थर को अनजाने ही उठा लेना मेरी आदत का हिस्सा बन गया था. घर के सामने एक छोटा सा १०'x८' का लॉन भी था, जिसमें दो तरफ क्यारी, एक तरफ दीवार और एक तरफ से आने-जाने का रास्ता था. लॉन बनाने की शुरुआत जंगली गुलाब और घास से हुई पर जल्दी ही उनकी विकराल बढ़त को देख कर ये समझ आया की इनके रहने से ना ही सुन्दरता बढ रही है और ना ही संतोष मिलने वाला है. सो कई महीनो तक, पहले विदेशी घास लगाने का काम किया गया. एक बार जब लॉन में मखमली घास आ गयी फिर बढते हुए जंगली गुलाबों पर ध्यान गया. पहले पहल तो, दो तीन प्रकार के गुलाब लाये गए और फिर उन पर चालू हुआ ग्राफ्टिंग करने का प्रयोग. ग्राफ्टिंग का प्रयोग, स्रष्टि रचने से काम रोचक नहीं था, क्योंकि ग्राफ्ट करने के बाद धागे बंधी हुई टहनियों से फूटती कोमल पंखुड़ियों को रोज सुबह निहारना, एक अलग ही आनंद देता था. नयी उगी हुई टहनियों पर नए अनजाने रंग के गुलाब के फूल का इंतेजार बिना बोर हुए करना और उनके खिलने के बाद खुश होना एक अजीब ही अनुभूति थी.

आज जब मुड़ कर गुजरे हुए समय पर नजर डालता हूँ तो पाता हूँ कि कितना कुछ पीछे छूट गया? समय बदला, जीवन बदला, जीने का तरीका और सोच बदली और हम क्या से क्या बन गए. अब मुंबई जैसे महानगर की व्यस्तता में पत्र की जगह आई पेड और ब्लैकबेरी की इमेल ने ले ली, तारों तले घुप्प अँधेरे में रेडियो पर गानों की जगह टीवी ने ले ली और इस महंगे शहर में बगीचा तो गुम ही हो गया, बस रह गयी तो एक याद...

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

जीवन के सबक

जब ये सोचा की एक हिंदी में भी ब्लॉग लिखना शुरू करना चाहिए, तब "जीवन के सबक," ये नाम सोचने में मुझे ज्यादा वक़्त नहीं लगा. 

हिंदी के प्रति मेरा लगाव हमेशा ही रहा है और इसलिए ही मेरा अंग्रेजी के प्रति कभी भी ज्यादा झुकाव नहीं रहा. और शायद यही कारण था, कि इस विदेशी भाषा को जरुरत के लायक ही सीखा. हालाँकि ये बात अलग कि मुझे याद नहीं पड़ता, कि मैंने पिछले २८ वषों में कभी काम के सिलसिले में, बोलने के अलावा हिंदी का प्रयोग किया हो. 

चुनांचे, आज सुबह जब पेपर के इंतजार में अपने आई पेड पर यूँ ही वक़्त गुजारते समय, हिंदी में ब्लॉग लिखने का विचार आया तब बिना कोई देर करे उसे वास्तविक स्वरुप देने में कोई देर नहीं लगायी. 

चलिए पहली लाईन पर वापस चलते है.... हाँ, तो मैं बात कर रहा था जीवन सबक की, और ऐसे समय पिताजी की टेबल के कांच नीचे लगी पेपर की कटिंग पे लिखी पंक्तियाँ बरबस ही याद आ जाती है:

"वो मुसाफिर ता क़यामत पा नहीं सकता मुकाम, जिसको ये अहसास हो जाये की मंजिल दूर है,
कम नहीं होती भटक जाने से शाने कारवां, ये तो मंजिल की ही किस्मत कि वो हमसे दूर है".

इन लायनों में मैने, हमेशा ही जीवन के संघर्षों और सबकों को छुपा हुआ पाया. सो मेरा ये हिंदी में लिखा हुआ पहला ब्लॉग, इन्ही लायनों को समर्पित है.

संजीव.

अब देखना ये है, कि इस प्रयास को कितना आगे तक ले जा पता हूँ.
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